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A Thursday Review: सिस्टम पर चोट करने की बनावटी कोशिश में चूकी ‘अ थर्सडे’, यामी गौतम की मेहनत निष्प्रभावी

Pankaj Shukla पंकज शुक्ल
Updated Thu, 17 Feb 2022 11:45 AM IST
A Thrusday Movie Review Yami Gautam Atul Kulkarni Dimple Kapadia Disney Plus Hotstar
A Thrusday Movie - फोटो : अमर उजाला

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Movie Review
अ थर्सडे
कलाकार
यामी गौतम , नेहा धूपिया , डिंपल कपाड़िया और अतुल कुलकर्णी
लेखक
एशले लोबो और बेहजाद खंबाटा
निर्देशक
बेहजाद खंबाटा
निर्माता
आरएसवीपी और ब्लू मंकी फिल्म्स
ओटीटी
डिज्नी प्लस हॉटस्टार
रेटिंग
2/5

मुंबई से मीलों दूर एक विलुप्त हो चुकी नदी के किनारे बसे कस्बे फतेहपुर चौरासी में मैं फिल्म ‘अ थर्सडे’ देख रहा हूं। उस उन्नाव जिले का ये एक छोटा सा हिस्सा है जिसकी पहचान कभी भगवती चरण वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, के के शुक्ला, गोविंद मूनीस जैसे रचनात्मक लोगों से रही है। बीते कुछ साल से जिला किशोरियों व युवतियों के साथ बलात्कारों को लेकर सुर्खियों में है। बेटियां मरती रहती हैं। सियासत होती रहती है। चुनाव होते रहते हैं। न नदी में पानी अठखेलियां करता है और न बेटियां अपने मन को बहने दे पाती हैं। पथभ्रष्ट हो चुके लोगों ने दोनों को कहीं का नहीं रखा। ये चुनावी मुद्दा भी नहीं बनता। सोशल मीडिया पर लोग अपनी बात कहकर फिर से जातियों और धर्मों के वोट गिनने में लग जाते हैं। बात मुंबई जैसे किसी बड़े शहर की हो तो वहां तो सिस्टम या लोगों को जगाने के लिए ‘अ वेडनेसडे’ और ‘अ थर्सडे’ जैसा लोग कुछ कर भी जाते हैं। यहां राजधानी में अपनी जान देने की कोशिश करने के बाद ही सिस्टम जागता है। और, अक्सर इस देर से टूटी नींद का खामियाजा सिस्टम पर टूटते भरोसे के रूप में सामने आता है। इसी नींद को तोड़ने की कोशिश है फिल्म ‘अ थर्सडे’।

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A Thrusday Movie - फोटो : social media
सिस्टम पर भरोसा टूटने के बाद आम इंसान क्या कर सकता है? या तो वह सोशल मीडिया पर अपनी बात कहता है या किसी संस्था के पदाधिकारी से अपनी शिकायत करता है या फिर झुंझला कर कुछ उल्टा सीधा कर बैठता है। मन मसोसकर चुप बैठ जाने वाले भी बहुतेरे हैं। लेकिन, फिल्म ‘अ थर्सडे’ सिस्टम से झुंझलाई हुई एक युवती की कहानी है जिसका इरादा सिस्टम के कानों में जमी मैल हटाना है, उसे जनता की चीखें सुनाना है और इंसाफ की आंखों पर बंधी पट्टी हटाकर आसपास के सफेदपोश लोगों के दामन पर लगे छींटों की पहचान करानी है। नसीरुद्दीन शाह के किरदार ने ये काम ‘अ वेडनेसडे’ में एक बहुमंजिला इमारत के ऊपर बैठकर सन्नाटे में किया। यामी गौतम का किरदार ये काम नन्हे मुन्नों के एक स्कूल में कर रहा है। दोनों की कहानी में समानता यही है कि दोनों का इरादा सिस्टम पर चोट करना है और उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाना है। लेकिन, फिल्म ‘अ थर्सडे’ के निर्देशक नीरज पांडे नहीं है। यहां मामला बेहजाद खंबाटा के हाथ में है जिनकी सरकारों के काम करने, सिस्टम के हिलने डुलने को लेकर सोच मुंबइया है।

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A Thrusday Movie - फोटो : social media
हिंदी सिनेमा एक खोल में सिकुड़ता जा रहा है। अब कोई निर्देशक दिल्ली से मुंबई का सफर ट्रेन में बैठकर कम ही करता है। न ही वह इस रास्ते में ‘उपकार’ जैसी कहानी ही लिख पाता है। कहानियों अपने दर्शकों से दूर जा रही हैं। दर्शक हिंदी सिनेमा से दूर जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि जब बेसिर पैर की कहानियों से ही मनोरंजन करना है तो फिर मिथुन चक्रवर्ती शैली की फिल्म ‘पुष्पा द राइज’ ही क्या बुरी है, कम से कम ये बुद्धिजीवी सिनेमा होने का ढोंग तो नहीं करती। खालिस मसाला फिल्म को समानांतर सिनेमा की शक्ल देने की कोशिशें ही हिंदी सिनेमा की कमजोर कड़ी बनती जा रही हैं। युवा दर्शक इसी से ऊब रहे हैं। वह तर्क की बात करते हैं। हिंदी सिनेमा वाले चाहते हैं कि दर्शक फिल्म दिल से देखें। सिनेमा वह दिमाग लगाने वाला बना देते हैं।

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A Thrusday Movie - फोटो : social media
फिल्म ‘अ थर्सडे’ हिंदी सिनेमा के उस दौर की फिल्म है जिसमें निर्माताओं ने कहानी का भार महिला कलाकारों के जिम्मे करने का स्वांग भरना शुरू कर दिया है। कंगना रणौत की बात अलग है वह अकेले अपने कंधे पर फिल्में ढोती रही हैं और कामयाब भी होती रही हैं। लेकिन, उन्होंने भी जब इस कामयाबी को अपना हक समझ लिया तो मामला गड़बड़ाने लगा। दीपिका पादुकोण के साथ ये हादसे ‘छपाक’ और ‘गहराइयां’ में हो चुके हैं। ‘द्रौपदी’ बनाने की हिम्मत शायद इसीलिए अब उनसे नहीं हो रही। फिल्म ‘अ थर्सडे’ में ये जिम्मेदारी यामी गौतम ने उठाई है। अच्छा काम किया है यामी ने। लेकिन, उनकी इस फिल्म की सेटिंग, इसका फिल्मांकन, इसकी पटकथा उनका साथ नहीं देती। उनका फिल्म के प्रवाह के हिसाब से शुष्क और आर्द्र न हो पाना भी खलता है। उनके चेहरे के भाव सीमित हैं और ऐसे किरदारों के लिए जिस तरह की नाट्यकला का प्रदर्शन कैमरे के सामने अपेक्षित होता है, वह एक काबिल निर्देशक उनसे बेहतर तरीके से करा सकता था।

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A Thrusday Movie - फोटो : Instagram
बेहजाद खंबाटा संभावनाशील निर्देशक हैं। साउंड इंजीनिरिंग उनका सिनेमा मे शुरुआती पेशा रहा। फिर वह सहायक निर्देशक से निर्देशक बन गए। फिल्म ‘ब्लैंक’ में भी उनको कहानी ने धोखा दिया। यहां भी वह एक अधपकी पटकथा में मात खा गए। हिंदी सिनेमा बनाने वालों को अपने दर्शकों की मनोदशा और हिंदी बोलने वाले दर्शकों की दुनिया देखनी जरूरी है। बहुत कल्पनाशीलता भी नुकसानदेह होती है और सिनेमा में अगर बनावटीपन दिखने लगे तो ‘गुजारिश’ और ‘पद्मावत’ जैसी फिल्में भी अपेक्षित सफलता हासिल करने से चूक जाती हैं। फिल्म तकनीकी रूप से भी खास प्रभावित नहीं करती। कैमरे की गतिशीलता एक तय पैटर्न में ही दिखती है। ध्वनि और प्रकाश का बेमेल संयोजन भी अखरता है। अतुल कुलकर्णी और डिंपल कपाड़िया जैसे दमदार कलाकारों के किरदार खोखले दिखते हैं। फिल्म ‘अ थर्सडे’ की ये कमियां ही इसे इस वीकएंड की एक फेवरिट फिल्म बनने नहीं देतीं।
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